सोमवार, 9 मार्च 2015

ग़ज़ल के दरीचे में पंडित सुरेश नीरव



ग़ज़ल के दरीचे में पंडित सुरेश नीरव
                              सर्वेश चंदौसवी
ग़ज़ललफ़्ज़ों से ख़ालिक़े-कायनात की इबादत का जरिया है,उसके लिए जो इंतिहाई संजीदगी के साथ ग़ज़ल  का सफ़र तय करते हुए कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचकर अपनी शाइराना अज़्मतों को अदबी दुनिया से मनवाना चाहता है। इस हक़ीक़त से भी इन्कार  नहीं किया जा सकता है कि ग़ज़लअपने लिए अपने शाइर से उसका लहू मांगती है और लहू की लाली ही ग़ज़ल के चेहरे को सुर्ख़-रू बनाने में कामयाब होती है। ग़ज़ल की तीन हर्फ़ी बुनावट और बनावट ग़ज़लके मुकम्मल होने का ऐलान करती है। ग़ज़लमें ग़ैब (ईश्वर),ज़िंदगी (जीवन) और लामहदूद कायनात ( अखिल ब्रह्मांड) (ग़ैन),ज़(ज़े) एवं (लाम) इन तीन हर्फ़ों के ज़रिए ही संपूर्णता समाहित होती है। ग़ज़ल का हुस्न शाइर के ज़ह्न की ख़ूबसूरती और पाकीज़गी को नुमायां करता है। ग़ज़लके शाइर में तज्रुबातो-अहसासात की ताबानकी का होना निहायत ज़रूरी है। शाइर की फ़िक्र को तरो-ताज़ा बनाकर लफ़्ज़ों का ज़ख़ीरा ग़ज़ल के पैकर में रानाइयों को नमूदार करता है। ग़ज़ल के लिए इन तमा ख़ुसूसियात को यकजा करनेवाली हिंदी-अदब की पुरवक़ार शख़्सियत को अगर मैं नाम दूं तो ग़ज़ल का बेबाक शाइर दरीचे ग़ज़ल-संग्रह का ख़ालिक़ पंडित सुरेश नीरव हैं।
ग़ज़ल की तस्वीर के दो पहलू हैं। एक पहलू ग़ज़लकी अरूज़ी हैसियत और इसकी मुकम्मल जानकारी से मोतबर बनाता है तो दूसरे पहलू के लिए मज़ामीन की वुस्अतो-नुदरत,ज़बान की शाइस्तगी,मुहावरों और अलंकारों की पुरकारी के साथ-साथ तारीख़ी पसमंजर भी मददगार साबित होते हैं। अरूज़ी वाक़फ़ीयत ग़ज़लकी बुनियाद को पुख़्ता बनाने के काम को अंजाम देती है। बुनियाद की मज़बूती और उसकी बाउसूल तामीर ग़ज़ल की इमारत को पुख़्तगी और बुलंदी अता करती है। इस ऐतबार से पंडित सुरेश नीरव की ग़ज़लों को ख़रा उतरने में दुश्वारी पैदा होती है लेकिन किसी हद तक इन्होंने ग़ज़ल की दोशीज़ा के हुस्न को दूसरे ज़ेवरातो-जवाहिरात से सजाने का बाक़माल कारनामा अंजाम दिया है। साइंस के तालिबे-इल्म होने के बावजूद हिंदी-अदब की बेपनाह ख़िदमत करते हुए पंडित सुरेश नीरव ज़िंदगी के उस मक़ाम तक आ पहुंचे हैं जहां इनके इर्द-गिर्द तज्रुबातो-मुशाहिदात की कहकशां जल्वा अफ़रोज़ है। अपनी मालूमात के दम पर और वसीअ मुतालिए की बिना पर इनकी ग़ज़लों का मेयार दूसरे ग़ज़लकारों से कहीं ज़ियादा पुरअसर और इबरतनाक है। मैंने दरीचे ग़ज़ल-संग्रह की तमामतर ग़ज़लें संजीदगी के साथ पढ़ी हैं और इस मुतालिए के ज़ेरे-असर ही ज़ाती राय क़ाइम करते हुए.ये दावा भी कर सकता हूं कि इनकी ग़ज़लें सोने की तरह खरी हैं मगर कुंदन बनने के लिए उसूलों की आग में तपना बाक़ी है। बहरो-वज़न और रदीफो-काफिया का इल्म जब सर चढ़कर शाइर के बोलता है तो ग़ज़ल के वक़ार में इज़ाफ़ा भी होता है और ग़ज़ल के परस्तारों के ज़हनो-दिल झूमने पर मजबूर भी होते हैं। इन्तिहाई ज़हानतों के मालिक,बेदार रूह रखनेवाले पंडित सुरेश नीरव क़लम के धनी हैं। संस्कृत,हिन्दी,उर्दू और अंग्रेजी अदब से इस्तफ़ादा हासिल करनेवाली पंडित सुरेश नीव की मक़बूलियत भी सातवें आसमान पर है, इसके सुबूत में सोलह किताबों की इशाइयत के हमराह टी.वी.सीरियल का लेखन,वो भी एक-दो नहीं सात,इस बात के ग़म्माज़ हैं। अवामी हैसियत से लेकर ख़ास लोगों तक पंडित सुरेश नीरव रसाई,इनके अब तक के अदबी कारनामों का ही प्रतिफल है। किसी भी तंज़ीम को कामयाब बनाने का हुनर हर किसी को मयस्सर नहीं होता है मगर पंडित सुरेश नीरव का ज़हन उन नज़ाकतों से अच्छी तरह आशना हैं जिनके दम पर अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति नामक संस्था के ये राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और इनकी निगरानी में संस्था भलिभांति फल-फूल रही है। अपने आप में बहुमुखी प्रतिभा के प्रतीक पंडित सुरेश नीरव अपने ग़ज़ल-संग्रह दरीचे में 9 बहरों के 25 औज़ान में 93 ग़ज़ल के 683 शेरों के साथ मौजूद हैं। रमल, रजज़, हज़ज, मुतक़ारिब,मुतदारिक और कामिल मुफ़रद बहरें हैं। इनमें एक ही रुक्न का प्रयोग होता है। मज़ारअ,मुजतस,ख़फ़ीफ़ मुरक्कब बहरे हैं,इनमें दो अरकान शामिल होते हैं। 09 बहरों के सालिम और ज़िहाफ़शुदा वज़न का इस्तेमाल करना,इनकी ग़ज़ल के प्रति वफ़ादारी का प्रमाण है। दो वजन इन्होंने अपने संग्रह में ऐसे इस्तेमाल किये हैं जिन्हें बहुत कम शाइर इस्तेमाल करते हैं। 25 औज़ान का अपनी ग़ज़लों में इस्तेमाल करना इनकी अरूज़ी हैसियत की निशान देही करता हैलेकिन 05 ग़ज़ल में औज़ान की गड़बड़ी भी दरीचेसे झांकती नज़र आती है। सबसे ज़ियादा अशआर रमल बहर में दरीचे की ज़ीनत बने हैं। 03 नंबर में ग़ज़ल में हैं अगर मतले और हर सानी मिसरे से हटा दें तो ग़ज़ल बहरे-रमल के सही दायरे में आ जाती है। दूसरे नंबर पर बहरे मज़ारअ का इस्तेमाल दरीचे में किया गया है। चूंकि ये बहर मुरक्कब है और ज़िहाफ़शुदा वजन प्रयोग में लाया जाता है इसलिए इस पर ज़ियादा ध्यान देने की ज़रूरत पड़ती है। बहरे मुतदारिक और बहरे-हज़ज की शमूलियत अशआऱ में तीसरे और चौथे पायदान पर मिलती है। 05 नंबर पर बहरे-मुतक़ारिब के 06 औज़ान में 51 अशआऱ दरीचे  में मौजूद हैं। रमल के 06,मज़ारअ के 02,मुतदारिक के 03 और मुतक़रिब के 06 औजान में 228,117,92,69,51 यानी 683 में 557 अशआर 20 औज़ान में दरीचे ग़ज़ल-संग्रह का बेशतर हिस्सा बने हैं। इस विश्लेषण से दरीचे  ग़ज़ल-संग्रह का अरूज़ी ख़ाका साफ़तौर पर नज़र के सामने आता है । 05 ग़ज़लों (12,36,52,53,67) के 32 अशआर ऐसे हैं जिनमें बहरो-वज़न मे इख्तिलाफ़ बरता गया है दरीचे ग़ज़ल संग्रह में संजीदा शाइरी के साथ-साथ म़ज़ाहिया ग़ज़लें भी शामिल की गई  है जो कि साबित करती हैं कि पंडित सुरेश नीरव का क़लम मैदाने-अदब में हर तरह की जंग लड़ने का हुनर रखता है। दरीचे  की ग़ज़लों को साफतौर पर दो खानों में तक़सीम किया जा सकता है। पहले खाने में ग़ज़ल की तमामतर ज़ेबाइशें अपनी आबो-ताब के साथ दरीचे  के औराक़ पर जल्वा-फ़िगन हुई हैं। इस अंदाज़ की ग़ज़लें शाइर की ज़हानतों और सलाहियतों का भरपूर सुबूत पेश करती हैं। मैं इस तरह के कुछ अशआऱ पर रौशनी डालने की कोशिश कता हूं,जिनसे ग़ज़ल की तहदारी और पासदारी का पता चलता है। इस लिहाज़ के मद्दे-नज़र एक मतला तहरीर करता हूं
दिल से जब भी तुझे याद करता हूं मैं
खुशबुओं के नगर से गुज़रता हूं मैं।
बहरे-मुतदारिक मुसम्मन सालिम में कहा गया मतला ग़ज़लकार की अंदरूनी कैफ़ियत की बेबाक नुमांइन्दगी करता है। याद के उन्वान से बेशुमार अशआऱ हिंदी-उर्दू ज़बानों में कहे गए हैं। लेकिन ख़ुशबुओं के नगर से गुज़रने का अमल यादकी क़द्रो-क़ीमत में बेपनाह इज़ाफ़ा करता है। किसे याद  किया जा रहा है, इस सवाल का जबाब खुशबुओं के नगर से जिस अंदाज़ में मिलता है वही अंदाज़ ग़ज़ल के देरीना हैसियत और आज की मक़बूलियत के साथ-साथ बाइसे-हर दिल अज़ीज़ी बनता है। सलीस ज़बान और मफ़हूम की भरपूर अदायगी इस मतले की ख़ुसूसियत बनकर सामने आती है। उर्दू ग़ज़ल की 800 साला तीरीख़ ग़ज़ल को मोतबर और मुसतनद बनाती है लेकिन हिन्दी-ग़ज़ल की कमउम्री को ऐसे अशआऱ यकीनन ही फख़्र करने पर आमादा करते हैं।
39वीं ग़ज़ल दरीचे ग़ज़ल संग्रह की सरापा तंज़िया गज़ल है। इसकी रदीफ़ जमूरे अब तो आंखें खोल के तेवर तलवार की काट से कम नहीं हैं। इस ग़ज़ल का वज़न भी अपने आप में क़ाबिले-सताइश है। मैं नहीं समझता हूं कि हिन्दी-उर्दू ग़ज़ल में आज तक इस वज़न का इस्तेमाल किया गया है। बहरे-मुतक़ारिब सालिम जिसमें फऊलुन पांचहर्फ़ी रुक्न का इस्तेमाल किया गया है। इसके मुसम्मन सालिम वज़न फऊलुन, फऊलुन,फऊलुन,फऊलुन, फऊलुन को एक ही मिसरे में दो बार प्रयोग करें तो मुसम्मन मुज़ाइफ़ वज़न बनता है। इस वज़न में क़ब्ज़ और क़स्र ज़िहाफ़ का इस्तेमाल करने पर जो ज़िहाफ़शुदा वज़न तामीर होता है वो निम्नानुसार है-
फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फऊल, फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फऊल इस वज़न में तख़नीक़ ज़िहाफ़ लगाने पर 49 रियायती औज़ान बनते हैं। इनमें 03 औजान का सफ़लतापूर्वक प्रयोग इस ग़ज़ल में देखने को मिलता है-
(1)    फ़ऊलुन फ़ालु फ़ऊलुन फ़ाअ, फऊलुन फ़ेलुन.फेलुन फ़ाअ
अमल से सिद्ध हुए हैवान,जमूरे अब तो आंखें खोल
(2)    फ़ऊलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ाअ,फ़ऊलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ाअ
पराई थाली में पकवान,जमूरे अब तो आंखें खोल
(3)    फ़ऊलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ाअ, फ़ऊलुन फ़ेलुन फ़ालु फ़ऊल
कटाने को अपनी ही नाक,किया लोगों ने ख़ूब मज़ाक़
इसी ग़ज़ल में ठलुओं और प्रतिभा शब्दों के लुऔर तिहर्फ़ों को साकिन (गतिहीन) बनाकर वज़न पूरा किया गया है। चढ़ आया शब्दों के बीच वस्ल(संधि या मिलन) का प्रयोग किया गया है। जिससे चढ़ाया वज़न फ़ऊलुन रुकन बनता है। चढ़ आया एक साथ पढ़ने पर अर्थभेद पैदा होता है जो कि वज़न के इस्तेमाल की मजबूरी है। यह ऐसा दोष है जिसका कोई उल्लेख किसी जगह नहीं मिलता है। इससे श्रोता भ्रमित होता है फिर भी इस ग़ज़ल में वज़न का नवीनतम प्रयोग क़ाबिले-मुबारकबाद है।
कितने जंगल क़त्ल होंगे इक सड़क के वास्ते
पेड़ की इक चीख़ ने बेहद रुलाया है मुझे।
संवेदनाओं से परिपूर्ण,विकासवाद के दुखद परिणाम को दर्शाता यह शेर आज के आधुनिक समाज की विसंगतियों को स्पष्टरूप से रेखांकित करता है। प्रकति के रूप को सामाजिक उत्थान के लिए जितना विकृत आज किया जा रहा है शायद इतना पहले किसी दौर में नहीं किया गया। आधुनिक परिवेश को चित्रित करता हुआ पंडित सुरेश नीरव का एक शेर और तहरीर करता हूं जो इनकी सामाजिक दृष्टि के पैनेपन को उजागर करता है-
हैसियत कोई बुजुर्गों की नहीं घर मे रही
जब से बेटे बाप से बढ़कर कमाने लग गए।
इस ग़ज़ल के सानी मिसरों से हैं हटाने पर गज़ल बहरो-वज़न में दुरुस्त भी होती है और पुरअसर भी। दरीचे ग़ज़ल संग्रह का ग़ज़लकार फ़िक्रमंद होते हुए कहता है-
हर एक शख़्स में होता है धुंध का जंगल
तुम इसको कैसे उड़ाओगे आंधियां बनकर?
 चेतावनी के साथ-साथ चुनौती से परिपूर्ण यह शेर और इस की बुनावट हर ऐतबार से कामयाबी की दलील है। अब मैं जो शेर उदाहरणार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं उसे पढ़कर ग़ज़लकार की जहानत का लोहा मानने को दरीचे के पाठकों को मजबूर होना पड़ेगा। शेर में मफ़हूम के ऐतबार से इन्फ़रादियत भी क़ाबिले-ग़ौर है-
कोई माहौल न हो कोई तमन्ना भी न हो
ऐसे मिलने के बहाने भी मज़ा देते हैं।
मुझे ये कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि पंडित सुरेश नीरव संस्कृत,हिंदी,उर्दू,अरबी,फारसी और अंग्रेजी के अल्फाज़ बड़े खुलेपन के साथ अपनी ग़ज़लों में इस्तेमाल कते हुए नज़र आते हैं। कहीं-कहीं ग़ज़ल का मिज़ाज कुछ लफ़्जों को क़ुबूल भी नहीं करता है लेकिन मज़ाहिया ग़ज़ल में ऐसे अल्फ़ाज़ भी परम आवश्यक हैं। विषयगत विशेषताओं और विविधताओं से लबरेज़ ग़ज़ल संग्रह ग़ज़लकार के अध्ययन और अनुभव का जीता-जागता दस्तावेज़ है। पंडित सुरेश नीरन के क़लम में अहदे-हाज़िर की तब्दीलियों को अपने अशआर में बख़ूबी क़ैद किया है। कुछ और अशआऱ जो दरीचे ग़ज़ल संग्रह की क़द्रो-क़ीमत में इजाफ़ा करेंगे, मैं तहरीर करता हूं-
पूरे आदमक़द हुए हैं पाप के पुतले
और कितना होगा बौना आज का इसां?
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महकते फूलों में शुहरत घुली है मौसम की
वफ़ा में इश्क़ को कहते हैं लोग रुस्वाई।
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तिजारत जो करते हैं पिंजरों की नीरव
परिंदों के पर वो कतरते रहेंगे।
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दरवाज़े की किस्मत
बस साँकल हो जाना।
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अपनी नज़र में जो कभी अदना नहीं हुए
इस ज़िदगी में वो कभी तन्हा नहीं हुए।
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आपको जितनी क़िस्मत से हासिल हुई
उतनी चादर में अपनी गुज़र कीजिए।
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जब दैनिक अख़बार ने दर पर दस्तक दी
आंखें मलता आंगन में मंज़र जागा।
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इन्सानी क़द्रों का ज़वाल,नाकामी-ए-मुहब्बत का असर,तिजारत करनेवालों की मानसिकता,बदनसीबी का नतीजा,ख़ुद-एतमादी,सब्रो-तहम्मुल के साथ हालाते-हाज़िरा का रूप-स्वरूप उपरोक्त अशआर में ख़ूब से ख़ूबतर मुख़रित होता है।
 64वीं ग़ज़ल का मतला नमूने के तौर पर पेश करता हूं,जिसमे पंडित सुरेश नीरव ने अरूजी तौर पर बेपनाह कामयाबी हासिल की है-
आज हौले से उनको छुआ जाए
मेरे मालिक़ न ख़ाली दुआ जाए।
बह्रे-मुतदारिक मुसम्मन सालिम वज़न में यानी एक मिसरे में फ़ाइलुन चार बार के चौथे रुक्न में क़त्अ ज़िहाफ़ लगाकर जो वज़न हासिल होता है,उस वज़न का इस्तेमाल इस मतले में किया गया है-
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ेलुन
पंडित सुरेश नीरव के अभिनंदन-ग्रंथ का प्रकाशन होना,एक ऐतिहासिक और सुखद घटना है। हिंदी काव्य-जगत में इस ग्रंथ के माध्यम से हिंदी पाठकों तक पंडित सुरेश नीरव का व्यक्तित्व और कृतित्व समग्ररूप से पहुंचेगा और इनके कवि को उस शिखर पर आसीन करेगा जिसका ख़्वाब हर कवि या ग़ज़लकार देखता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि पंडित सुरेश नीरव साधना की निरंतरता को बनाए रखते हुए ग़ज़ल के अयूबो-महासिन को आत्मसात् कर हिन्दी-ग़ज़ल को नए दरीचे और प्रदान करेंगे। अपनी तमामतर नेक ख़्वाहिशात के साथ उम्रदराज़ी की दुआ करते हुए हर-हर तरह कामयाब ज़िंदगी जीने की मुबारकबाद पेश करती हूं। अपने ही मतले पर अपनी बात को विराम देता हूं-
ग़ज़ल में ग़ैब बशक़्ले-हयात शामिल है
जो बेहुदूद है वो कायनात शामिल है।
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