मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

आप भी तो ऐ नीरव मनचले सपेरे हैं।

धूप की हथेली पर खुशबुओं के डेरे हैं
तितलियों के पंखों पर जागते सवेरे हैं
नर्म-नर्म लमहों की रेशमी-सी टहनी पर
गीत के परिंदों के खुशनुमा बसेरे हैं
फिर मचलती लहरों पर नाचती-सी किरणों ने
आज बूंद के घुंघरू दूर तक बिखेरे हैं
सच के झीने आंचल में झूठ यूं छिपा जैसे
रोशनी के झुरमुट में सांवले अंधेरे हैं
डूब के स्याही में जो लफ्ज-लफ्ज बनते हैं
मेरी गजलों में अब उन आंसुओं के पहरे हैं
उजले मन के चंदन का सर्प क्या बिगाड़ेंगे
आप भी तो ऐ नीरव मनचले सपेरे हैं।
पं. सुरेश नीरव
मो.९८१०२४३९६६

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