हास्य-ग़ज़ल-
औंधे गिरे डगर में छिलके से वो फिसल के
दांतों का सेट मुंह से बाहर गिरा निकल के
शायर निकल के आया पतली गली ले चल के
इस हादसे पे पेले कुछ शेर यूं गजल के
गड्ढे भरी है सड़कें चिकना बहुत है रस्ता
है उम्र भी फिसलनी चला ज़रा संभल के
पैदल हो अक्ल से तुम और आंख से भी अंधे
क्या तीर मार लोगे इंसानियत पे चल के
हालात हैं निराले मेरे नगर के यारो
पानी तो है नदारद बिल आ रहे हैं नल के
फिर इस चुनाव में भी डूबी है इनकी लुटिया
आया ना रास कोई दल देखे सब बदल के
वो और हैं जिन्होंने गिरवी रखा कलम को
नीरव बने न भौंपू अब तक किसी भी दल के।
पं. सुरेश नीरव
मंगलवार, 1 जुलाई 2008
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2 टिप्पणियां:
naakaami ka hai maaraa
par josh kam nahi hai.
chaltaa hai dekho fir bhi
raste badal badal ke.
Maqbool
क्यों सोचते हो देश की
तस्वीर बदल जायेगी,
अब कुछ नहीं है फर्क
सरकार बदल-बदल के .
[] राकेश 'सोऽहं'
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