शब्द-साधना को ग़ज़ल
की रूह में उतारने वाले ग़ज़लकार हैं
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डॉक्टर कुंअर बेचैन
मध्य प्रदेश के ग्वालियर
शहर में 20 जून, 1950 में जन्मे, कादम्बिनी नामक प्रख्यात मासिक पत्रिका के
सम्पादन-मण्डल में तीस वर्ष तक सेवा करके सेवा-निवृत हुए पत्रकार, कवि-शायर तथा अनेक सीरियलों के लेखक और इन दिनों
देश की अग्रणी साहित्यिक संस्था ‘सर्व भाषा समन्वय समिति’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष,
26 से भी अधिक देशों की
यात्राएं अपने नाम में दर्ज़ कराने वाले तथा दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकों के
रचयिता, ज्योतिषाचार्य, संयोजक-संचालक श्री पंडित सुरेश नीरव के ग़ज़ल-संग्रह ‘दरीचे’ को पढ़ते हुए मेरे मन में जो बात सबसे पहले आई वह यह कि कवि जो कुछ लिखता है
उसमें कुछ उसका अपना व्यक्तित्व और कुछ समाज का चेहरा दिखाने की सहज भावना गुंफित
रहती है। समाज का यथार्थ चेहरा दिखाने के पीछे जो उसका मूल उद्देश्य होता है वह
यही कि समाज पहले ख़ुद को पहचाने और फिर जहां-जहां भी कुछ कमियाँ हों उन्हें दूर
करते हुए अपने चेहरे को सजाये और सँवारे। कवि सुरेश नीरव ने भी अपने इस ग़ज़ल-संग्रह में ग़ज़ल जैसी महत्वपूर्ण विधा की
गरिमा की रक्षा करते हुए, एक ओर कथ्य की दृष्टि से अपनी सोच और स्वभाव को सुरक्षित रखा है तथा दूसरी ओर
ग़ज़ल कहने के जो पैमाने हैं उनकी भी रक्षा की है। जहां तक ग़ज़ल को परिभाषित करने की
बात है तो इसकी परिभाषा अनेक कवियों और शायरों ने तरह-तरह से दी है। किन्तु सभी ने
सामाजिक सरोकारों के अलावा लौकिक प्रेम को अलौकिक प्रेम तक ले जाने की बात अवश्य
ही कही है। ग़ज़ल हुस्न और इश्क़ की कहानी
है। इसमें प्रेमी(आशिक) अपने प्रिय (माशूक) के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए उससे
मिलने को तड़पता है, उसके लिए आँसू बहाता
है, आहें भरता है और
उससे रूठता भी है और मनाता भी है। ग़ज़ल की खूबी यही है कि दिखने में यह लौकिक विरह
कभी-कभी परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाता है। इसी बात को दृष्टि में रखकर मैंने
(कुँअर बेचैन) भी ग़ज़ल का परिचय देते हुए ये चार पंक्तियाँ कही हैं—
बिजली की तड़प भी है, और अश्क का पानी भी
बरसात का
मौसम है हाँ, इसकी कहानी भी
कहते हैं ग़ज़ल जिसको, यह शै तो हक़ीक़त में
आशिक का बयाँ भी है और संत की बानी भी ।
पंडित सुरेश नीरव के इस संग्रह की
ग़ज़लें भी कुछ इसी प्रकार की हैं जिनमें बिजली की तड़प भी है, आंसुओं का जल भी है, पूरा का पूरा बरसात का मौसम है। ये ग़ज़लें आशिक
का बयां भी हैं और संत की बानी भी हैं।... इस संग्रह की कुछ ग़ज़लों का विषय प्रेम
की शाश्वत धारा में सहज रूप से उठती हुई अनेकानेक भाव-तरंगों का कलकल स्वर और
उसमें उठते आरोह-अवरोह के विविध लयात्मक आयाम हैं। परंपरागत खालिस ग़ज़ल की सबसे
महत्वपूर्ण और निजी सामग्री यह प्रेम ही है। प्रेम यानि ग़म-ए-जानां। कवि एक प्रेमी
के रूप में अपने प्रेम की अनेक भाव-भंगिमाओं को अपने प्रिय के सम्मुख व्यक्त करता
है, किन्तु यह
भाव-भंगिमाएँ कुछ ऐसी शक्ल अख़्तियार कर लेती हैं कि संसार के प्रत्येक प्रेमी को
वे अपनी-सी लगती हैं।... और ये बात ही कवि की अपनी सफलता और उसकी शायरी के स्तर की
पहचान कराती है। कवि सुरेश नीरव जानते हैं कि प्रेम में ख़ुशी के मौक़े बहुत कम और आंसुओं के अवसर अधिक आते हैं । दिल
की धड़कन के साज़ पर यह जो ‘सोज़’ का नृत्य है यह ही प्रेम की परीक्षा है और अच्छी ग़ज़ल का प्राण-तत्व भी। इसीलिए
वे यह कहते हैं—
‘दर्द के सूरज को जब लफ़्ज़ों में ढाला जाएगा/ तब
ग़ज़ल की रूह के भीतर उजालाजाएगा।... और आगे
चलकर वे बड़े ही सधे हुए शब्दों में बहुत
मार्मिक और अद्भुत पंक्तियाँ कह देते हैं—
ग़ज़लों में जी
रहा हूँ तुझे जोड़-जोडकर
लफ़्ज़ों में आंसुओं की जगह छोड़-छोड़कर
हमने सिसकती रात की माला
बना ही ली
अश्कों के मोतियों की
लड़ी जोड़-जोड़कर
जहां प्रेम है वहाँ अन्य
संचारी भावों के साथ-साथ यादों के क्षण भी प्रेम के भाव को और व्यथित, और गहरा, और पुष्ट कर जाते हैं। सुरेशजी ने ‘याद’ को दृष्टि में रखकर
अलग-अलग भंगिमाओं में बहुत ही सुंदर शेर कहे हैं। याद का और हिचकी का अमर संबंध
रहा है। कवि ने इसी को प्रतीक बनाकर कुछ इस प्रकार से याद को याद किया है—‘तमाम उम्र जो चुपचाप सा रहा मुझमें/ वो शख्स आज
मिला मुझसे हिचकियाँ बनकर।‘ हाँ, कई बार ऐसा भी होता
है कि प्रेम करने वाला किसी संकोच में अपने प्रेम को अभिव्यक्त नहीं कर पाता और
भीतर-ही-भीतर किसी को चाहता रहता है किन्तु बाद में किसी-न-किसी बहाने उसे याद
करने लगता है। हिचकियों के इस सिलसिले को नीरवजी ने अच्छे ढंग से मुखरित किया है।
इन्हीं हिचकियों ने ‘याद के गुंचों को
महका दिया’, ‘ख़ुशबुओं के नगर से गुजरने जैसा आनंद दिया, इतना ही नहीं इन्होंने तनहाई के आलम में भी
यादों के हुजूम को लाकर एक मेला-सा लगा दिया, और यही याद की ख़ुशबू जब हवा के साथ आई तो वह ‘आबेहयात’, अर्थात मरे हुए को भी ज़िंदगी देनेवाली दवा बन गई। इन यादों
का एक बहुत ही सुंदर बिम्ब नीरवजी ने एक शेर में देकर पाठक को एक श्रेष्ठ कलात्मक
अनुभव से गुजरने का आनंद दिया है। शेर यूं है—
ये चाँदनी है या तेरी यादों
का अक्स है
पानी पे झिलमिलाता निशां
देख रहा हूँ
प्रेम का सबसे बड़ा आलम्बन
अर्थात विषय प्रिय का सौन्दर्य है। मेरी अपनी दृष्टि में भी आँखों का सबसे बड़ा
पुरस्कार सौंदर्य है और मन का सबसे बड़ा ईनाम प्रेम। सौंदर्य आँखों की ललक को पूरा
करते हुए, आँखों की प्यास बुझाते
हुए प्रेम को तरंगित करता है। इसीलिए जहाँ–जहाँ प्रिय और प्रेमी की बात आई
वहाँ-वहाँ सौन्दर्य की बात अवश्य ही आई है। जहाँ
तक ग़ज़ल का प्रश्न है वह तो है ही हुस्न और इश्क़ की कहानी। कवि सुरेशजी की
सौन्दर्य-दृष्टि की बात करें तो वह प्रिय को एक अलौकिक रूप प्रदान करती-सी लगती
है। प्रिय का ख़ूबसूरत चेहरा अगर प्रेमी की ओर हो जाए, बस ज़रा देर को प्रिय
के चाँद-से चेहरे से नक़ाब हट जाए तो ‘अंधेरी रात भी उजली सहर हो जाए’, नीरवजी को कुछ इसी प्रकार का एहसास होता है। वे
फिर प्यारे-प्यारे शब्दों से एक पेंटिंग-सी बनाते हुए यह कहते हैं—
फिर लरजती शाखों पर चाँदनी चटखती है
किसने फिर नक़ाब अपने चेहरे
से उतारा है
यही नहीं, वह प्रिय है ही कुछ ऐसा कि नज़रों को बांध लेता
है—‘ हैं उसके होंठ मखमल
के, नरम लहजा है बातों
का/ वो नखरों की ग़ज़ल पूरी अदाओं की रुबाई है।... और जब हुस्न ऐसा हो तो फिर प्रिय
फिर यह क्यों न कहे—‘सभी कुछ दांव पर अब
तो लगाने का इरादा है/किसी के हुस्न का जादू जगाने का इरादा है।’… प्रेम जब गहरा और गहन होता है तो वहाँ सारे भेद
समाप्त हो जाते हैं, सारे अहं विसर्जित
हो जाते हैं । प्रिय प्रेमी का रूप हो जाता है और प्रेमी प्रिय का रूप। इसी बात को
रेखांकित करते हुए नीरवजी कहते हैं—
ग़र प्यार है तो इसमें अहं
को जगह नहीं
राधा को प्रेम-भाव ने ही
कृष्ण कर दिया
नीरवजी के लिए प्रेम पूजा
का मंदिर है। वे कहते हैं-‘धड़कता दिल ये सीने में तेरा पूजा का मंदिर है/जहाँ कुछ दीप हम पूजा के रखकर लौट
आते हैं।’… लेकिन आज के इंसान के दिल से प्रेम की यह पावनता कहीं विदा ले गई है। आज का
प्रेम वासनात्मक हो गया है इसीलिए वे क्षुब्ध होकर कहते हैं—‘सलवटों वाला बिछौना आज का इंसाँ/ वासना का है
खिलौना आज का इंसाँ ।’ सुरेश नीरवजी की इस संग्रह की ग़ज़लों का एक बिन्दु अध्यात्म और दर्शन भी है। जब हम अध्यात्म की कुटिया में विराजते हैं
तो शरीर के अस्तित्व को स्वीकारते हुए भी उसे महत्व नहीं देते। शरीर के भीतर जो
आत्मा है, जिसके अस्तित्व के
कारण ही हम जीवन धारण करते हैं, उसी को सर्वाधिक महत्व देते हैं, उसी पर ध्यान लगाते हैं, उसे पहचानने की कोशिश करते हैं और उसकी रौशनी के चारों तरफ़ लगी कालिख को साफ़
करने की कोशिश करते हैं । हाँ,
तब ही यह अनुभूति होती है
जिसका ज़िक्र नीरवजी ने अपने एक शेर में बहुत ही सुंदर ढंग से किया है—
आग से तो मैं घिरा हूँ, जल रहा कोई और है
मंज़िलें मेरी हैं
लेकिन चल रहा कोई और
है
आती-जाती साँस की उलझन ने मुझसे ये कहा
जिस्म तो मेरा है,‘नीरव’ पल रहा कोई और है
जब यह सोच आ जाता है तो जीवन की नश्वरता का पता चलता है और तब जीवन के प्रति
कुछ ऐसे कहने का मन करता है जो नीरवजी ने कहा है—‘उसने कुछ मिट्टी उठाई और हवा में फेंक दी/
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा ऐसे बताया है मुझे।’… और जीवन के साथ-साथ मृत्यु का दर्शन भी यह रूप लेकर शब्दों
में उतरता है—‘ हो गया खत्म ये बरसों का तमाशा कैसे/ जिस्म का रूह से रिश्ता था वो टूटा कैसे।’
कवि नीरव ने अपनी ग़ज़लों में अपने व्यक्तित्व की पहचान भी कराई है। यह इनकी
ग़ज़लों का वह बिन्दु है जिस पर प्रत्येक रचनाकार कुछ न कुछ अवश्य कहता है। कवि
सुरेश भी अपने बारे में यह कहते हैं कि इन्होंने भी सैकड़ों विरोधों के बीच अपने
ज़मीर को जीवित रखा है—‘गुमनाम-सी ये मौत गवारा नहीं मुझे/
आया हूँ साज़िशों के किले तोड़-तोड़कर।’… और यह भी इसलिए हुआ क्योंकि इनके ज़मीर ने इनसे यह प्रश्न कर
दिया था—‘कब तक जियोगे बेच के
अपने ज़मीर को/ मुझसे मेरे वजूद ने ये प्रश्न कर दिया।’… कवि ने अपना हौसला नहीं खोया और स्पष्ट शब्दों
में यह भी कह दिया-
मैं डरा कब हूँ बयावाँ की मुश्किलों से कभी
हौसलों की बड़ी
ऊँची उड़ान है मुझमें
वे अपने हौसले से वाकिफ़ हैं
तो अपने दर्द से भी। नीरवजी ने आत्मविश्लेषण के बिन्दु पर भी अपनी ग़ज़लों की अदायगी
को ला खड़ा किया है। इनकी कुछ आत्मविश्लेषणात्मक पंक्तियाँ देखें—‘ज़ख्म और अश्क की बेबस ज़ुबान है मुझमें/दर्द के
गाँव का कोई मकान है मुझमें।’… और यह दर्द का गाँव किसलिए है इसका कारण भी बताते हुए यह
कहते हैं—‘ख़यालों के दरीचों
में हसीं चाहत थिरकती है/जिसे हम अपनी आँखों में छुपाकर लौट आते हैं।’ जब वे अपने से बाहर आते हैं तो सबसे पहले अपने
परिवार के बारे में सोचते हैं। परिवार में व्यक्ति का सबसे निकटतम संबंध माँ से होता है। नीरवजी माँ के व्यक्तित्व पर
एक यह बहुत प्यारा शेर कहते
हैं—‘ग़ज़ब की ख़ुशबुएँ होती
हैं माँ की बातों में/ जो नाचती हैं
हर इक सिम्त तितलियाँ बनकर।’… परिवार का एक उल्लासमयी और मासूम हिस्सा बच्चे होते हैं।
कवि नीरवजी बच्चों पर पढ़ाई के बोझ पर बहुत संवेदनशील हैं। वे कहते हैं—‘चश्मे लगा के पुस्तकें खुद को पढ़ेंगीं अब/बच्चों
पे कहर ढाया है ऐसा पढ़ाई में।’… आज की शिक्षा-पद्धति ने कुछ ऐसा भी कर दिया कि पीढ़ियों के
सोच में एक बड़ी खाई सी खुद गई है । जिसे हम ‘जेनेरेशन गेप’ कहते हैं उस पर कवि
कहता है— ‘कल तक घुटनों चलते थे जो उंगली थामकर/अब वही
बच्चे हमें आँखें दिखाने लग गए हैं।’… आज भाइयों में बँटवारे का दंश भी बुज़ुर्गों को बहुत सालता
है। इधर घर बंटते हैं तो उधर मन भी बंट जाते हैं— रिश्ते लहू-लुहान हुए, आबरू गई
झगड़े का इक मकान कई भाइयों में था
घर से निकलकर जब हम समाज में आते हैं, यार-दोस्तों से मिलते हैं, दुनियादारी को देखते हैं तो भी अजब-अजब तज़ुर्बे
होते हैं। आज के आदमी की मक्कारी, उसकी चालाकी, ‘यूज़ एंड थ्रो’ वाली मानसिकता को भी
नीरवजी ने अच्छी तरह पढ़ा है। इसीलिए वे इतनी गहराई से इन बातों को अपने अशआर में
कह सके हैं— ‘मिला था जो कभी हमदर्दीयाँ जता के मुझे/वो घाव दे गया किंतने गले लगा के मुझे।’… यही बात एक और ढंग से भी उन्होने ऐसे कही है—
‘जो महफिल में तुम्हारे पाँव आगे बढ़ के चाटेगा/ वही जब वक़्त आयेगा तुम्हारी जड़
को काटेगा।‘… आज का समाज उस सेवा-भाव को भी भूल गया है जिसमें व्यावहारिक औपचारिकता और
संवेदना का सांस्कृतिक पक्ष मौज़ूद था। वे कहते हैं—
पानी भी पूछता नहीं कोई लिहाज में
तहज़ीब आ गई है ये कैसी समाज में
कविवर सुरेश नीरव मंचों पर हास्य-व्यंग्य के कवि-रूप में भी स्थापित रहे हैं।
अतः इनकी ग़ज़लों में यह व्यंग्य का स्वर भी एक ऐसा बिन्दु है जिस पर चर्चा होनी
चाहिए। आज के भारत में चाहे वो राजनीतिक क्षेत्र हो या सामाजिक, धार्मिक क्षेत्र हो या सांस्कृतिक, आर्थिक क्षेत्र हो या साहित्यिक सभी में भारी
विद्रूपता आ चुकी है। कवि ने इन सभी क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों पर खूब
कटाक्ष किए हैं। देश की स्थिति पर यह टिप्पणी ही इस ओर इशारा करती है—‘ हर दिल में काला साया डर का टहल रहा है/अब
हादसों के बल पर भारत बदल रहा है।’… कवि पूरे भारत में जो देख रहा है उसे सांकेतिक भाषा में इस
प्रकार व्यक्त करता है—‘शोले बरस रहे हैं हवाओं में हर तरफ़/ मैं धूप की खिड़की से धुआँ देख रहा हूँ’… और निष्कर्ष रूप में यह कहते हैं—‘खेल नंगेपन का पूरी शान पर है/देश का अब तो पतन
उत्थान पर है।’ आज के कुछ तथाकथित
राजनीतिज्ञों को बिना रीढ़ का, बिना ज़मीर का बताते हुए वे यह
व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हैं—‘अब सियासत स्वाभिमानी बीज को बोती नहीं/ केंचुओं में रीढ़ की हड्डी कभी होती
नहीं।’… इसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में आई विद्रूपता को कवि इस प्रकार व्यक्त करता है—‘हर मठ में जा छुपे हैं अब आसाराम बापू/ फिर बन
के साधु रावण सीता का छल रहा है।’...धर्म के नाम पर जो दंगे-फसाद हो रहे हैं उनको भी रेखांकित
करते हुए नीरवजी का कहना है—‘उठ रही हैं आग की लपटें मेरी बस्ती में ‘नीरव’/ आग पर काबू करें यह दम नहीं है दमकलों में।’… आर्थिक क्षेत्र में तथा आफ़िसों में जो भ्रष्टाचार फैला है, जो रिश्वतख़ोरी चल रही है उसे भी नीरव जी इस
प्रकार व्यक्त करते हैं—
अपनी तो अर्ज़ी फिर से खारिज़
हुई है लेकिन
नीचे से टेबिलों के सब काम चल रहा है
ग़रीबों के साथ जो इस रिश्वतख़ोरी ने कहर ढाया है उस पर भी संवेदनात्मक कटाक्ष
करते हुए कवि कहता है—‘रिश्वत में कल वो बच्चों की गुल्लक को खा गया/ अंधा बना दिया उसे अंधी कमाई
ने।’ कवि नीरव की ग़ज़लों
का विविध आयामी कथ्य तो हमें आकर्षित करता ही है किन्तु इन ग़ज़लों का शिल्प-पक्ष भी
बहुत मज़्बूत है। ग़ज़ल अगर ग़ज़ल है तो उसकी सबसे पहली शर्त यह है कि वह बहर आदि में
बिलकुल ठीक हो । नीरवजी ने ग़ज़ल के छंद को पूरी तरह से साध लिया है। इस संग्रह में
जो ग़ज़लें हैं उनमें कुछ छोटी बहर में भी हैं और बड़ी बहर में भी। इन्होंने अपनी
ग़ज़लें जिन प्रमुख छंदों में कही हैं उनमें ‘बहरे-रमल’ और ‘बहरे-हजज़’ में ही अधिकतर ग़ज़लें हैं। ग़ज़ल के लिए भाषा की जिस मुहावरेदारी की आवश्यकता
होती है वह इन में है। हम सभी जानते हैं
कि ग़ज़ल में अभिधात्मकता को अधिक पसंद नहीं किया जाता । ग़ज़ल अपनी बात को इशारे में, प्रतीक में कहने की कला है। कवि ने ‘अजगर’ के प्रतीक से समाज में व्याप्त डर को व्यंजित किया है—
शोर हुआ मेरी बस्ती में डर जागा
वीराने में पड़ा हुआ अजगर जागा
इसी प्रकार एक ही शेर में बिम्ब और प्रतीक का समन्वय भी द्रष्टव्य है—‘ओस तेज़ाब बन के बिखरी है/घास के जिस्म पर फफोले
हैं।’ सुबह के समय दीपक के
बुझने को कवि ने जिस उक्ति की विचित्र शैली में कहा है वह रेखांकित करने योग्य है—‘शान से लड़ता रहा हूँ मैं अँधेरों से मगर/हाय री
किस्मत कि सूरज ने बुझाया है मुझे।’...काफ़िये के चमत्कार को देखना हो तो इस शेर में देखें—‘कल तक जो नौकरी में थे लकड़ी की टाल के/कविता के
आज बन गए वो दादा फाल्के।’… इसी प्रकार एक अन्य ग़ज़ल में ‘जमूरे अब तो आँखें खोल’ के रदीफ़ का इस्तेमाल करके अकेली इसी ग़ज़ल में देश
के हालात की पूरी झाँकी दिखाई है। इस ग़ज़ल की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इस ग़ज़ल में
ग्यारह शेर हैं और यह सारे शेर मतले के शेर हैं। यह उस्तादाना कमाल बहुत मुश्किल
से होता है। इस ग़ज़ल के दो शेर देखें—
अमल से सिद्ध
हुए हैरान जमूरे अब तो आँखें खोल
न जाने किसकी है संतान जमूरे अब तो आँखें खोल
मिला है ठलुओं को सम्मान जमूरे अब
तो आँखें खोल
हुआ है प्रतिभा का अपमान जमूरे अब तो आँखें खोल
अच्छे संग्रह की सबसे बड़ी पहचान यह मानी जाती है
कि उसमें समय-समय पर उद्धृत करने योग्य सूक्ति-वाक्य जैसी भी पंक्तियाँ हों।
नीरवजी के इस संग्रह में ऐसे कई शेर हैं जो संदेश-सा देते हुए प्रतीत होते हैं।
कुछ शेर देखें—
अपनी नज़र में जो कभी अदना नहीं हुए
इस ज़िंदगी में वह कभी तन्हा नहीं हुए
लाख तहखानों में खंज़र को
छुपा ले कोई
ख़ून के छींटे ही क़ातिल का पता देते हैं
आपकी जितनी किस्मत से
हासिल हुई
उतनी चादर
में अपना गुज़र कीजिये
कवि को यह महारत किस लिए
हासिल हुई इसका ज़वाब भी उनके उस सोच से मिल जाता है जो उनके एक इस शेर में व्यक्त
होता है—‘लफ़्ज़ हो, फ़िक्र हो कि मानी हो/शायरी के उड़नखटोले हैं।’ अंत में यह बात कहते हुए मैं अपनी वाणी को विराम
देता हूँ कि पंडित सुरेश नीरवजी की ये ग़ज़लें उन दरीचों को खोल देती हैं जो देश और
समाज के हालात का दर्शन कराते हुए उनके अपने निजी मन में छुपे भावों के भी दर्शन
कराते हैं । जो कहीं प्रेम बनकर, कहीं अनुभव बनकर और कहीं नसीहत बनकर हम पाठकों
तक पहुँचते हैं। इस सफल संग्रह के प्रकाशन के शुभ अवसर पर उनको शतशः बधाइयाँ देते
हुए यह भी इच्छा है कि उन्हीं के शब्दों में उनकी इस भविष्य-वाणी को सफल होते हुए
सारी दुनिया देखे—
आने वाली नस्ल लिक्खेगी मुझे तारीख़ में
मैं तो क्या मेरा मुकद्दर ही
कहानी हो गया।
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