गुरुवार, 8 मई 2008

खिलखिलाते ही रहे छंद तेरी आंखों के।

हंसते अनुप्रास मिले सांसों के वृंदावन में
खिलखिलाते ही रहे छंद तेरी आंखों के
शोक दामन में क्वांरी संध्या के
खिलखिलाते ही रहे बंद तेरी बातों के
रूप की धूप खिली देह के विंध्याचल में
गुनगुने जिस्म हुए गंधभरी पांखों के
मुक्तक-सा झरता निमिष-निमिष प्यार तेरा
छंद हुए और मुखर बातूनी रातों के
गुनगुनाती है हवा श्लोक तेरे गातों के
खिलखिलाते ही रहे छंद तेरी आंखों के
मेंहदी रचे पृष्ठों पर सोनाली हाथों के
हंसते हैं हस्ताक्षर प्यारभरी सांसों के
खिलखिलाते ही रहे छंद तेरी आंखों के।
खालीपन सन्नाटा संस्मरण प्यासों के
दहका गये चिंगारी जंगल में बांसों के
जैसे चंदन है जिये दंश लिए सांपों के
खिलखिलाते ही रहे छंद तेरी आंखों के।
पं. सुरेश नीरव
मों. ९८१०२४३९६६

1 टिप्पणी:

उन्मुक्त ने कहा…

सुन्दर कवितायें लिखते चलिये।