शुक्रवार, 16 मई 2008

कड़की में

हास्य-गजल
गाल कटोरा ताल हुए हैं कड़की में
पर्वत भी पाताल हुए हैं कड़की में
हम ठनठन गोपाल हुए हैं कड़की में
फटे हुए रूमाल हुए हैं कड़की में
आंखों में अपनी गर्दिश के आंसू
यार सूअर का बाल हुए हैं कड़की में
घोषित हुए प्रधान हमीं भिखमंगों के
कैसे हम खुशहाल हुए हैं कड़की में
हैं मखमली गलीचे लीडर के नीचे
लोग फटे तिरपाल हुए हैं कड़की में
खिचड़ी को मोहताज हुई खिचड़ी सरकार
कैसे विकट कमाल हुए हैं कड़की में
क्या खाकर उत्तर दें शव के प्रश्नों का
खुद विक्रम बैताल हुए हैं कड़की में
जमीं मुफ्त में फोकटखोरों की चौपाल
नीरव स्वयं सवाल हुए हैं कड़की में
पं. सुरेश नीरव
मो, ९८१०२४३९६६
(कु. अर्चना,नागपुर ने मोबाइल पर जहां अपनी प्रतिक्रिया दी वहीं भाई अनिल भारद्वाज, अरविंद पथिक,अबरार अहमद, रजनीश के.झा और अंकित माथुर ने भी अपनी बहुमूल्य टिप्पणी देकर अनुगृहीत किया है,डॉ.रूपेशजी शायद नर्सोन्मुखी-चिंतन में लीन-तल्लीन हैं वो हस्बमामूल लाम पर हैं,जहां भी हैं वतन के काम पर हैं।)

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