शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

आजकल


दोस्तो बहुत दिनों बाद फिर एक गजल के साथ हाजिर हूं
हम नहीं मिलते हमीं से एक अरसा आजकल
रूह में रहने लगा है एक डर-सा आजकल
दर्द के सेहरा में भटके आंख में आकर टिके
आंसुओं को मिल गया है एक घर-सा आजकल
दर्द के पिंजरे में कैदी उम्र का बूढ़ा सूआ
लम्हा-लम्हा जी रहा है इक कहर-सा आजकल
बर्फ के घर जन्म लेकर प्यास से तड़फा किए
जी रहा हूं रेत में गुम इक लहर-सा आजकल
फूल-पत्ती-फल हवाएं साथ अब कुछ भी नहीं
ठूंठ में जिंदा दफन हूं इक शजर-सा आजकल
इस हुनर से जान ले की दूर तक चर्चा न हो
दोस्त मीठा हो गया है अस जहर-सा आजकल
हो जहां साजिश की खेती और फरेबों के मकान
आदमी लगने लगा है उस शहर-सा आजकल।
पं. सुरेश नीरव

5 टिप्‍पणियां:

राकेश 'सोहम' ने कहा…

"बर्फ के घर जन्म लेकर प्यास से तड़फा किए
जी रहा हूं रेत में गुम इक लहर-सा आजकल ."
उफ़ .... बहुत खूबसूरत प्रयोग है तिस पर ये कि "ठूंठ में जिंदा दफन हूं इक शजर-सा आजकल"
इंतज़ार के साथ
[] राकेश 'सोऽहं'

डॅा. व्योम ने कहा…

नीरव जी बहुत खुशी हो रही है आपका ब्लाग देख कर। ब्लाग की थोड़ी साज सज्जा कर लें तो यह और भी सुन्दर दिखेगा।

Tapashwani Kumar Anand ने कहा…

दर्द के सेहरा में भटके आंख में आकर टिके
आंसुओं को मिल गया है एक घर-सा आजकल
दर्द के पिंजरे में कैदी उम्र का बूढ़ा सूआ
लम्हा-लम्हा जी रहा है इक कहर-सा आजकल
बर्फ के घर जन्म लेकर प्यास से तड़फा किए
जी रहा हूं रेत में गुम इक लहर-सा आजकल

Yatharth me Sarabor rachna..
Badhai ....

विभूति" ने कहा…

बेहतरीन पोस्ट....

सागर ने कहा…

behtren prstuti...