शुक्रवार, 2 मई 2008

लफ्ज के आईने में संवरता हूं मैं

दिल से जब भी तुझे याद करता हूं मैं
खुशबुओं के नगर से गुजरता हूं मैं
गुनगुनी सांस की रेशमी आंच में
धूप सुबह की होकर उतरता हूं मैं
नर्म एहसास का खुशनुमा अक्स बन
लफ्ज के आईने में संवरता हूं मैं
कांच के जिस्म पर बूंद पारे की बन
टूटता हूं बिखरकर सिहरता हूं मैं
चंपई होंठ की पंखुरी पर तिरे
ओस की बूंद बनकर उभरता हूं मैं
कहकहों की उमड़ती हुई भीड़ में
हो के नीरव हमेशा निखरता हूं मैं।
पं. सुरेश नीरव
मो.-९८१०२४३९६६

1 टिप्पणी:

Anita kumar ने कहा…

badhiya, agar word verification na diya hota toh devnaagri mein likhte,