मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

मौसम की मुद्रा में परिवर्तन है

भ्रष्ट राजनेताओं ने जिस तरह से देश को तबाह किया है,उसने एक बार फिर से पूरे देश को सोचने को मजबूर कर दिया है कि आखिर क्या इसी लिए देश को आजाद कराने के लिए हमारे शहीदों ने कुर्बानी दी थी?
१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में नानाजी पेशवा, महारानी लक्ष्मीबाई, नवाब बांदा,वीर कुंअर सिंह,बेगम हजरत महल,रानी जिंदा, राजा मर्दन सिंह, शाहजादा फिरोज और बहादुरशाह जफर के परिवार में कौन बचा है? जबकि उस दौर के वे राजा जिन्होंने कि अंग्रेजों का साथ दिया चाहे वह ग्वालियर के हों या कश्मीर के या पटियाला के.या नाभा के सब-के-सब आज भी राजनीति पर हावी हैं। तात्याटोपे के वंशजों को बड़ी धूम-धाम से लालूजी ने रेल्वे में अदना-सी नौकरी दे दी,रामप्रसाद बिसमिल की मां भीख मांगते हुए मरी,बहन चाय का ढाबा चलातीं रहीं.चंद्रशेखर आजाद की मां को भगवान दास माहौर ने ता-उम्र अपने यहां रखा। मैनपुरी षड्यंत्र के गैंदालाल दीक्षित दिल्ली के सरकारी अस्पताल में एक लावारिस की तरह मर गये। सुखदेव,राजगुरु या बटकेश्वर दत्त के परिवार का कोई सदस्य नहीं बचा। लोक मान्य तिलक, लाला लाजपत राय,लाला हरदयाल,श्यामजी कृष्ण वर्मा,मदन लाल ढींगरा,ऊधम सिंह वीर सावरकर किसके परिवार का सदस्य आज देश की राजनीति में है? शहीदे आजम भगत सिंह के पिता और दो चाचा स्वतंत्ता संग्रामी थे,कौन है उनके परिवार का जो राजनीति में है? आजादी के बाद जो अंग्रेजों के मुखबिर थे, अंग्रेजों के पिट्ठू थे वे महात्मा गांधी की जय कहते ह्ए सत्ता पर काविज होते चले गये। देशनायक सुभाष चंद्र बोस को वो जिंदा हैं या नहीं इस पहेली में उलझाकर कभी न खत्म होनेवाला रहस्य बना दिया। कुल मिलाकर देश के अमर शहीदों का इस व्यवस्था ने कभी सम्मान नहीं किया। उनको,उनके नाम को अपने हित में मनचाहा यूज किया और कर रहे हैं। हर राजनीतिक दल अपनी संतान को तख्ते-ताउस पर बैठानेवाली एक एजेंसी बनकर रह गई है। जाति,धर्म,क्षेत्रियता ने हालत यह कर डाली है कि महाराष्ट्र में अब उत्तर भारतीय का रहना मुहाल किया जा रहा है।प्रगति के तमाम आंकड़ों के बावजूद किसान आत्म हत्याएं कर रहे हैं,मंहगाई से हारकर लोग खुदकुशी कर रहे हैं। इन सब हालातों में देश का युवावर्ग जागा है। इसका प्रमाण है अभी हाल में लोकप्रियता के सर्वेक्षण के नतीजे जिसमें हिंदुस्तान की जनता ने अपने आदर्श के रूप में शहीदे आजम भगत सिंह को सबसे ज्यादा मत देकर अपना निर्णय सुना दिया है। दूसरे नंबर पर उन्होंने नेताजी सुभाष को रखा है। गांधीजी और नेहरूजी तो काफी पीछे हैं। क्या देश का यह मोहभंग का फैसला है? अगर हां तो मैं देश के आज के राजनेताओं से यही कहूंगा कि जरा सोचिए...कल तेरा क्या होगा कालिया? जो वक्त की आवाज नहीं सुनते वे इतिहास के कचरेदान में फेंक दिये जाते हैं। याफि इतिहास के सलीब पर लटकाए जाते हैं। मौसम की मुद्रा में परिवर्तन है,उसकी आहट को सुनने का शऊर अपने आप में पैदा करो कुर्सी के खटमलो...।
पं. सुरेश नीरव

कोई टिप्पणी नहीं: