वीणा के तारों को जितना दुलराया
उतनी ही रूठते गये
बाहर से मुस्काते दीख पड़े हम भीतर से टूटते गये
पारे-सा बिखर गया यादों का ताशमहल
दर्पण-सा टूट गया शबनमी अतीत
धूओं मे खो गई संदली हंसी
रूठ गये नयनों से सांवले प्रतीक
राह चले शान से हम तो बहुत
रास्ते खुद-ब-खुद छूटते गये
वीणा के तारों को जितना दुलराया
उतनी ही रूठते गये
ऐसे हैं बस्ती में आदमी यहां
जैसे हों जिंदा परछाइयां
कागज़ के फूल कभी खिलते नहीं
पानी और तेल कभी मिलते नहीं
वैसे तो दोस्तों के काफिले बहुत
राह चले काफिले छूटते गये
वीणा के तारों को जितना दुलराया
उतनी ही रूठते गये।
पं. सुरेश नीरव
मों ९८१०२४३९६६
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